Bhagavad Geeta Gyaan Pravachan in Hindi By Krishna
1. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।
मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 47 )
तुम्हारा अधिकार केवल कर्म करने में है, फल में नहीं। इसलिए फल की चिंता छोड़कर कर्म करते जाओ।
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2. "न जायते म्रियते वा कदाचित्
नायं भूत्वा भविता वा न भूयः।"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 20):
आत्मा कभी पैदा नहीं होती, कभी मरती नहीं। यह सदा-अविनाशी है।
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3. "वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 22)
जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है, वैसे ही आत्मा एक शरीर को त्यागकर दूसरा धारण करती है।
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4. "उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 5-6):
मनुष्य स्वयं अपना मित्र है और स्वयं ही शत्रु भी। यदि वह अपने मन को जीत ले तो वह मित्र है, अन्यथा शत्रु।
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5. "योगी युन्जीत सततमात्मानं रहसि स्थितः।
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 6)
सच्चा योगी एकांत में, निरंतर अभ्यास करता है। उसकी इच्छा नहीं होती और वह संग्रह नहीं करता।
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6. "सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वां सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुचः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 18, श्लोक 66):
सब धर्मों को त्यागकर केवल मेरी शरण में आओ। मैं तुम्हें सारे पापों से मुक्त कर दूंगा, भय मत करो।
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7. "आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन।
सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमो मतः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 32)
जो योगी सब प्राणियों में अपने समान ही सुख-दुख को अनुभव करता है, वही सर्वोत्तम योगी है।
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8. "अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते।
तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम्॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 22)
जो मनुष्य एकनिष्ठ होकर मेरा चिंतन करते हैं, मैं उनके योग (साधनों की प्राप्ति) और क्षेम (संपत्ति की रक्षा) का स्वयं पालन करता हूँ।
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9. "सत्त्वं रजस्तम इति गुणाः प्रकृति-संभवाः।
निबध्नन्ति महाबाहो देहे देहिनमव्ययम्॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 14, श्लोक 5):
प्रकृति से उत्पन्न सत्व, रज और तम ये तीन गुण शरीर में स्थित आत्मा को बाँधते हैं।
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10. "यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 30):
जो मुझे (भगवान को) हर जीव में और हर जीव को मुझमें देखता है, वह मुझसे कभी अलग नहीं होता।
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11. "यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 8, श्लोक 6)
मृत्यु के समय जो भाव मन में होता है, वही अगले जन्म में व्यक्ति को प्राप्त होता है। इसलिए अंत समय में भगवान का स्मरण करें।
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12. "श्रद्धावान्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति॥
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 4, श्लोक 39)
श्रद्धा और संयम से युक्त व्यक्ति ज्ञान प्राप्त करता है, और फिर उस ज्ञान से वह परम शांति को प्राप्त करता है।
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13. "न हि कल्याणकृत्कश्चिद्दुर्गतिं तात गच्छति॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 40):
जो व्यक्ति शुभ कर्म करता है, वह कभी भी बुरा फल नहीं पाता। भगवान उसका कल्याण अवश्य करते हैं।
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14. "त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः।
कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 16, श्लोक 21)
काम (इच्छा), क्रोध और लोभ — ये तीन नरक के द्वार हैं। ये आत्मा का पतन करते हैं, इसलिए इनका त्याग करना चाहिए।
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15. "तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रियः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 7, श्लोक 17)
सभी भक्तों में ज्ञानी, जो एकनिष्ठ भक्ति करता है, वह मुझे अत्यंत प्रिय होता है, और मैं भी उसे प्रिय होता हूँ।
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16. "विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पण्डिता: समदर्शिन:॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 5, श्लोक 18):
ज्ञानी व्यक्ति ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ते और चांडाल को समान दृष्टि से देखता है। यही सच्चा समत्व है।
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17. "आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 6, श्लोक 6):
मनुष्य स्वयं का मित्र है यदि वह मन को जीत ले, अन्यथा वही उसका शत्रु बन जाता है।
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18. "यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च यः।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 12, श्लोक 15):
जो दूसरों को कष्ट नहीं देता और जो दूसरों से कष्ट नहीं पाता, जो हर्ष, अमर्ष (क्रोध), भय और चिंता से मुक्त है — वह मुझे प्रिय है।
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19. "अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
यः प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशयः॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 8, श्लोक 5):
जो व्यक्ति अंतिम समय में मेरा स्मरण करता है, वह मोक्ष को प्राप्त करता है – इसमें कोई संदेह नहीं है।
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20. "पत्रं पुष्पं फलं तोयं यो मे भक्त्या प्रयच्छति।
तदहं भक्त्युपहृतमश्नामि प्रयतात्मनः॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 26):
कोई भक्त मुझे प्रेम से पत्र, पुष्प, फल या जल भी अर्पित करता है, तो मैं उसे स्वीकार करता हूँ।
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21 . "क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥"
भावार्थ:श्लोक (अध्याय 9, श्लोक 31):
हे अर्जुन! तू यह घोषणा कर दे – मेरा भक्त कभी नाश नहीं होता।
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22. "आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमाप: प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥"
भावार्थ: श्लोक (अध्याय 2, श्लोक 70):
जैसे नदियाँ समुद्र में जाकर भी उसे विचलित नहीं करतीं, वैसे ही जिसकी इच्छाएँ शांत हैं – वही सच्चा ज्ञानी है।
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